Monday, 30 April 2012


… असमंजस, हैरानी हूं! :)

माफ़ जो हो वो नादानी हूं,
बहता रहता वो पानी हूं!
समझ न पाया अब तक कोई,
वो असमंजस, हैरानी हूं! :)

रुकना मेरा छंद नही है,
तट से बंधना पसंद नही है!
बैठ के रोने से क्या होगा,
मुश्किल मेरी चंद नही है!

दिल छू लोगे पिघल जाउंगी,
ढ़ालो जैसे ढ़ल जाउंगी,
बोझ न समझो मुझको अपना,
खुद अपने से सम्हल जाउंगी!

Saturday, 28 April 2012

वो बचपन 


बचपन का जमाना होता था, खुशिया का खजाना होता था
चाहत चाँद को पाने की थी, दिल तितली का दीवाना होता था
खबर ना थी कुछ सुबह की, ना श्याम का ठीकना होता था
थक हार के स्खूल से आना, फिर खेलने भी जाना होता था
बारिश में कागज की कश्ती थी, हर मोसम सुहाना होता था
हर खेल में सामिल होते थे, हर रिश्ते में अपना पन होता था
पापा की वो गलती पर डाटना, मम्मी का मानाना होता था
गम की जुबा होती ना थी, ना खुसिया का पैमाना होता था
रोने की वजह ना होती थी, ना हसने का बहाना होता था
अब नही रहा वो बचप्न, वो बचपन तो बचपन ही होता था
 

Tuesday, 24 April 2012


मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥

तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥

बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥

बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥

 हम तुम ......तुम हम 

पहुचे वहीँ चले थे जहासे 

तुमको पाया तो सबको भुलाया 

सबने हमे भुलाया तब तुम पास न थे 

मान और माया में खुद को डुबाया

फिर भी दिलको सुकून न आया 

तेरी चाहत में ये जिन्दगी गुजरे 

नसीब को अपने हमने आजमाया 


{सीता पालीवाल}
यह कदम्ब का पेड़ 

यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे धीरे
ले देती यदि मुझे तुम बांसुरी दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके चुपके आता
उस नीची डाली से अम्‍मां ऊंचे पर चढ़ जाता
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता
अम्‍मां-अम्‍मां कह बंसी के स्‍वरों में तुम्‍हें बुलाता




सुन मेरी बंसी मां, तुम कितना खुश हो जातीं
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं
तुमको आती देख, बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
एक बार मां कह, पत्‍तों में धीरे से छिप जाता
तुम हो चकित देखती, चारों ओर ना मुझको पातीं
व्‍या‍कुल सी हो तब, कदंब के नीचे तक आ जातीं
पत्‍तों का मरमर स्‍वर सुनकर,जब ऊपर आंख उठातीं
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं




ग़ुस्‍सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं नीचे आ जा
पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहतीं मुन्‍ना राजा
नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी
नये खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी
मैं हंसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता
बुलाने पर भी जब मैं ना उतरकर आता
मां, तब मां का हृदय तुम्‍हारा बहुत विकल हो जाता




तुम आंचल फैलाकर अम्‍मां, वहीं पेड़ के नीचे
ईश्‍वर से विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे
तुम्‍हें ध्‍यान में लगी देख मैं, धीरे धीरे आता
और तुम्‍हारे आंचल के नीचे छिप जाता
तुम घबराकर आंख खोलतीं, और मां खुश हो जातीं
इसी तरह खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे ।।


     {सुभद्राकुमारी चोहान}  

Monday, 23 April 2012

किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह


किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह


बढ़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह


सितम तो ये है कि वो भी ना बन सका अपना
कूबूल हमने किये जिसके गम खुशी कि तरह


कभी न सोचा था हमने "क़तील" उस के लिये
करेगा हमपे सितम वो भी हर किसी की तरह