Tuesday 7 August 2012

                                                 
                                  रक्षा बंधन एक रक्षा भी करवाता है 

भाई बहन का प्यार, ये रक्षा बंधन ही समझाता है
रक्षा बंधन नाम अनोखा , रक्षा भी करवाता है
रेसम का धागा कहलाता ,पर शक्ति इसमें अनेक है
बहना प्यार से बांधे जब बंधन ये अटूट बन जाता है
एक- एक गाठ में अजर अमर की ,दुआ ये बहना करती है
हे परमेश्वर हे मेरे श्यामी, भैया मेरा अमर रहे
खुसिया से खुसहाल रहे ,मस्ती से भरपूर रहे
रेशम का धागा क्या है , ये तब ही समझ में आता है
किसी भाई की सुनी कलाई में , जब ये बंध जाता है
प्यारा सा ये प्यारा बंधन ,तब ही समझ में आता है .
           
     { सीता पालीवाल  }

Sunday 8 July 2012

मेरी फूल सी गुडिया 

पापा की तो जान तुम्ही हो ,मम्मी की पहचान तुम्ही हो  
भारत की तो सान तुम्ही हो ,मेरी भी तो जान तुम्ही हो


न चहुँ में धन और वैभव, बस चहुँ में तुझको
तुही लक्ष्मी तू ही शारदा ,मिल जाएगी मुझको


बन कर रहना तू गुडिया सी ,थोडा सा इठलाना
ठुमक  ठुमक  कर चलना ,घरमे पैंजनिया खनकाना


उंगली पकड कर पापा की तुम ,कंधे  पे चढ़ जाना
आचल में छुप जाना माँ के ,उसका दिल बहलाना


जनम जनम से रही ये इच्छा ,बेटी तुझको पाने की
पूरी हुयी ये आश अधूरी ,गुडिया तुमको पाने की


पापा की तो जान तुम्ही हो, मम्मी की पहचान तुम्ही हो
भारत की तो सान तुम्ही हो, मेरी भी तो जान तुम्ही हो !!.


{ सीता पालीवाल }



Saturday 7 July 2012


भारत की गुडिया !!

ओ भारत के रहने वालो ,एक नझर हम पर भी डालो 
हम भारत की सान है , हमसे देस महान  है 
हम को तुम अबला ना  समझो , हम झासी सी रानी है

पड़ लिख कर कुछ बनाना चाहती , हम भी आगे बढना चाहती 
हम गुडिया सी भले ही दिखे ,पर अरमान हमारे अनेक है

ऑफिसर बन दफ्तर जाये , लोग हमे सलाम करे 
उचे पद पर बेठ सभी का, आदर और सम्मान  करे
डाक्टर बनकर सबको स्वस्थ , रखने का संकल्प करे 
इंजिनियर बनजाये जब, भारत का नव निर्माण करे

तकनीकी इतनी बढ जाये, आस मान  छू ले भारत 
लहर सी ये लहर  चले, तुफानो  सी गति मिले

सब देसों में मचे ये हल चल ,ये केसा तूफान उठा 
वो भी सोच के दंग रह जाये, भारत को क्या रतन  मिला

ऐसा हम कुछ करना चाहती, ऐसा हम कुछ बनना चाहती !! 
ओ भारत के रहने वालो, एक नजर हम पर भी डालो 
हम भारत की सान है, हम से देस महान है..... !!
           जय हिंद ..
   { सीता पालीवाल }


सुनहरे गाँव में गंणतंत्र दिवस का उत्सव   


आओ साथी यो देश वासियों ,मेरा निर्त्य दिखाती हु 
मोरनी सी चाल है मेरी . कोयल सी में गाती हु


मेरा निर्त्य देख कर टीचरजी को भी गर्व हुआ 
ताली बजा कर वाह वाह कह कर मेरा भी सम्मान किया

पुरूस्कार जब ले घर पहुंची , माँ ने मुझको गले लगाया
पुरूस्कार सबको दिखलाऊ ,देखो दादी देखो भईया

पर एक बात अब याद है आई, पापा ने मोहे डाट लगायी
दूर देस में रहते पापा फिरभी डाट लगते है

पापा तुम मुझको ना डाटो ,में तोरे अन्ग्नाकी चिड़िया
उड़ जाउंगी पंख लगाकर ,बस कुछ दिनका रेन बसेरा

मेरी बाते सुन कर पापा की भी आखें नम हुए
गले लगा कर मुझको बोले ,गुडिया मेरी जान तुही

आओ साथिया देस वासिय मेरानिरत्य दिखाती हु
मोरनी सी चाल है मेरी कोयल सी में गाती हु ...!!

सच में जब बालिकाओ का निर्त्य और उनकी भोली अदाओ से
सजना सवर्णा देख ते है तो उनके सम्मान करने में शब्द कम पड़ जाते है ..



             { सीता पालीवाल }

Monday 30 April 2012


… असमंजस, हैरानी हूं! :)

माफ़ जो हो वो नादानी हूं,
बहता रहता वो पानी हूं!
समझ न पाया अब तक कोई,
वो असमंजस, हैरानी हूं! :)

रुकना मेरा छंद नही है,
तट से बंधना पसंद नही है!
बैठ के रोने से क्या होगा,
मुश्किल मेरी चंद नही है!

दिल छू लोगे पिघल जाउंगी,
ढ़ालो जैसे ढ़ल जाउंगी,
बोझ न समझो मुझको अपना,
खुद अपने से सम्हल जाउंगी!

Saturday 28 April 2012

वो बचपन 


बचपन का जमाना होता था, खुशिया का खजाना होता था
चाहत चाँद को पाने की थी, दिल तितली का दीवाना होता था
खबर ना थी कुछ सुबह की, ना श्याम का ठीकना होता था
थक हार के स्खूल से आना, फिर खेलने भी जाना होता था
बारिश में कागज की कश्ती थी, हर मोसम सुहाना होता था
हर खेल में सामिल होते थे, हर रिश्ते में अपना पन होता था
पापा की वो गलती पर डाटना, मम्मी का मानाना होता था
गम की जुबा होती ना थी, ना खुसिया का पैमाना होता था
रोने की वजह ना होती थी, ना हसने का बहाना होता था
अब नही रहा वो बचप्न, वो बचपन तो बचपन ही होता था
 

Tuesday 24 April 2012


मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥

तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥

बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥

बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥